Monday, November 23, 2015

मैं अब ज़िन्दगी को थोड़ी सी ढलान पर ले आया ...

दौलत है शोहरत है मगर सन्नाटा तन्हाई है ...
ये खुद को मैं मुर्ख किस मुकाम पर ले आया ...
दर्द , ठोकरें , दुत्कार ,पुकार बची हैं जहाँ ...
मेरा नसीब मुझे खिंच उस दूकान पर ले आया ...

मैंने कहा मुझे ले चलो थोड़ा सुकूं मिले जहाँ ...
कोई भला आदमी मुझे मेरे मकान पर ले आया ...

उदास मन से मैंने कहा मेरा दिल नहीं लगता यहाँ ...
हाथ पकड़के मुझे मेरा दिलबर चाँद पर ले आया ...

नीचे देखूं तो मेरी हकीकत परेशां दिखती है  ...
मेरे मौला तू मुझे ये किस उड़ान पर ले आया ...

पहले परखता , थोड़ा सहन , थोड़ा सब्र तो करता...
तू बहुत जल्दी रिश्ते को उफान पर ले आया ...

अगर रुक भी जाये किसी रोज तो धक्का शुरू हो सके ...
मैं अब ज़िन्दगी को थोड़ी सी ढलान पर ले आया ...