Thursday, May 5, 2016

काठ का घोड़ा

याद आई ''एक रुपये की 20 टॉफी'' और बिस्किट 555 की
तो ख्याल आया की क्यों ना आपको सैर करा दूँ बचपन की...

ज़िन्दगी आज इतनी कड़वी है तब बहुत ही मीठी लगती थी
कोहिनूर से ज्यादा कीमती, प्लास्टिक की अंगूठी लगती थी ...

रंग बिरंगी बरफ का गोला हटता नहीं था होठों से
कागज का बटुआ भरा होता था कागज के ही नोटों से ...
 
कभी उसने मुझको, तो कभी मैंने उसको पीछे छोड़ा
वो युद्ध का मैदान और वो काठी वाला काठ का घोड़ा ...

हालत देखने वाली होती, अपनी कॉपी के गत्तों की
श्याम को श्यामत आती थी, मधुमख्खी के छत्तों की ...

बहुत कसरत करवाते थे उन गली में घूमते कुत्तों की
बड़े टशन में चलते थे, लगाके ऐनक पीपल के पत्तों की ...

ना क़िस्त का पंगा ना उधार, थे घर में ही बनाते कार
टूटी चप्पल के दो टायर बनाए, दो मिनट में गाड़ी तैयार ...

अपनी मस्ती में मस्त थे ना बाहर की चिंता थी ना घर की
जान से प्यारी लगती थी, बरगद के पत्तों वाली फिरकी ...

हमारे लिए तो वो ही थी बस सबसे प्यारा साज
आधी छुट्टी वाली घंटी की, टन टन की आवाज ...

पूरी दुनिआ समेट लेने को दवात के एक ढक्कन में
मैं अब जा नहीं सकता, लौटके अपने बचपन में ...

उछल कूद गर ना करूँ तो मन पूरा दिन कच्चा रहता है
मेरे दिल के किसी कोने में आज भी एक बच्चा रहता है ...

ना फिसलने का डर होता ना गिरने का
इस ऊंचाई पर अगर मैं चढ़ा नहीं होता ...
दुनियादारी के ये सब झमेले ना होते ,
काश रवि ! तू कभी बड़ा नहीं होता ...